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हमें आगे आना है
हमें यह मानने में कतई संकोच नहीं है कि हम हमेशा फिसड्डी के फिसड्डी ही रहे। देखते-देखते, जूझते-जूझते जीवन के चालीस बसंत पार कर गये… लेकिन जहां थे वहीं के वहीं आज भी खड़े हैं। जबकि हमारे नेताओं, समाज सेवकों सभी ने हमें भरपूर कोचने की कोशिश की, कि हमें आगे आना होगा। बचपन से लेकर आज तक हजारों-लाखों बार हमें प्रेरित किया गया कि आगे आओ, आगे आओ लेकिन हम ठहरे गबद्दू के गबद्दू। इसलिए आज तक वह रास्ता ही नहीं तलाश कर पाये जिससे आगे जाया जा सके। खुद की ही गलती है सो इसका दोष भी अपने उन मार्गदर्शकों को नहीं दे सकते जो आगे बढऩे को ललकारते हैं। उन्होंने कोई ठेका तो नहीं ले रखा कि आपको आगे आने के लिये प्रेरित भी करें और फिर रास्ता भी दिखायें।
आजकल बड़े नेता घूम रहे हैं शहर-शहर। वे हर जगह कहते फिर रह हैं कि राजनीति में युवाओं को आगे आना होगा। अखबारों पर निगाह दौड़ाओ तो किसी न किसी मंत्री की टिप्पणी दिख जाती है कि भ्रष्टाचार दूर करने के लिए हमें आगे आना होगा। कभी कोई समाज सुधारने के लिये आगे आने की दावत देता है तो कोई शिक्षा का अलख जगाने के लिये। बहरहाल जितने मुंह, उतने ही आगे आने के लिये कारण। हम भी बेहद उत्साहित हुये कि, भई! बहुत दिन हो गया घिसट-घिसट जिंदगी बिताते हुये, अब चलो आगे आया जाये। ये बेचारे इतनी मेहनत करते हैं हमें आगे लाने के लिये और एक हम हैं कि बढऩे को तैयार नहीं। सो हमने भी ठान ली कि हम भी किसी से कम नहीं,…हर हाल में आगे आकर ही रहेंगे।
टीवी पर देखा था कि लाइन में आगे आने के लिये रूपा फ्रंट लाइन बनियाइन की जरूरत पड़ती है। सो दन्न से बाजार गये और दो ठो उठा लाये। जूते-मोजे कसे, कवच रूपी बनियाइन धारण की और निकल लिये आगे आने को। बाहर शहर तेजी से दौड़ रहा था, हम सोच में पड़ गये कि आगे जाने का रास्ता किधर से तलाशा जाये। सोचा, चलो बिजली का बिल भर दें। वहां पहुंचे तो देखा लम्बी लाइन, लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता क्योंकि हम तो आगे आने के जज्बे से लबरेज थे। भीड़ हमारे लिये क्या मायने रखती?… बनियाइन पहने ही थे सो लाइन को नजरअंदाज कर काउंटर की ओर बढ़े। अभी चार कदम भी न चले थे कि पीछे से किसी ने कालर पकड़ कर खीचा, और बोला-‘बहादुर, आगे कहां बढ़ रहा है, देखता नहीं हम भी खड़े हैं।Ó हम बोले-‘कल तक हम भी तुम्हारी ही तरह संतोषी थे। केवल खड़े होने पर हमारा विश्वास था लेकिन अब हमको आगे आना है, इसलिए इस लाइन में भी हम आगे ही खड़े होंगे।Ó… इतना कहना था कि पता नहीं किसने एक चपत जमाई और फिर दनादन पडऩे लगी। थोड़ी देर में हम सबसे पीछे थे और भीड़ वैसे ही खड़ी थी। अपनी हालत पर नजर दौड़ाई तो हालत खस्ता नजर आयी…लेकिन हौसले बरकरार दिखे। इन प्रगति अवरोधकों से क्या निपटना, उन्हें उसी स्थिति में छोड़ हम चल दिये गैस बुक कराने। वहां भी वही हाल, हमारे आगे आने के जज्बे को चुनौती। कोई बढऩे देने को तैयार नहीं। दूसरे प्रयास में ही हमारा हौसला दरकने लगा। नजर दौड़ाई तो देखा, हर तरफ लाइन ही लाइन लगी है। हर कोई किसी न किसी के पीछे खड़ा है। स्टेशन पर जाओ तो लाइन…अस्पताल जाओ वहां भी लाइन…स्कूल में एडमीशन कराना हो तो लाइन। हर जगह लाइन ही लाइन। हम पसोपेश में पड़ गये, हमारा जज्बा डगमगाने लगा कि किधर और कैसे आगे बढ़ा जाये? इस आपाधापी…मारा-मारी की दुनिया में जहां कन्नी काटकर आगे बढऩे की होड़ मची हो वहां हम जैसा आम आदमी क्या करे और कैसे आगे बढ़े?…आगे बढऩे को किसका दिल नहीं करता लेकिन दिल की कही फलीभूत कहां होती है? सुरसा जैसा मुंह फाड़ती मंहगाई में घर चलाने की मशक्कत…बच्चों की डिमांड पूरी करने के लिए इधर-उधर से चवन्नी-अठन्नी का जुगाड़ करने की मशक्कत…लोकलाज बचाने के लिये उधारी से नाते-रिश्तेदारी चलाने की मशक्कत…जाम से जूझते हुये समय पर आफिस पहुंचने की मशक्कत…काम के बोझ तले बास की डांट से बचने की मशक्कत…ऐसी तमाम मशक्कतों के बीच जिंदगी की गाड़ी ढोने की मशक्कत…इन सब में फंसा आम आदमी बेचारा कहां से कुव्वत लायेगा आगे आने की। यह सोचकर दिल को तसल्ली दी कि अपनी तो दो-तिहाई कट गयी…जब अब तक आगे नहीं आ पाये तो अब यह अपने बूते का है नहीं। हर फेल पिता की तरह अपने अरमान बेटे में पूरा करने की नियत से उसकी तरफ देखा तो उसे मेरी नियत में कुछ बदनियति नजर आयी। मकसद जान वो चिल्लाया-‘हमसे यह सब न हो पायेगा। सब्जी लाना हो तो हम नजर आते हैं…दूध लाना हो तो हम नजर आते हैं…जो भी काम हो, हमीं पर थोपा जाता है…आप खुद तो आगे आ नहीं पाये और हमें आगे आने को कह रहे हैं..सरकारी स्कूल की पढ़ाई बूते हम कैसे आगे जायें।Ó
बात उसकी भी कुछ हद तक ठीक थी। सोचा यह काम उन्हीं का है जो हमें सीख देते हैं आगे आने की। यह सब बस कहने की बातें हैं…सुनने की बातें हैं…हम जैसों को अमल में लाने वाली नहीं..इसलिए जैसे हैं…जिस हाल में हैं, ठीक हैं..दुरुस्त हैं।…आने-पाई से फिट हैं। हमारे पिता जी भी ऐसे ही रहे हैं…उनके पिता जी भी ऐसे ही थे…और उनके भी पिता जी ऐसे ही रहे होंगे। यथास्थिति बरकरार वाले हालात में जीने वाले….तो हम किस खेत की मूली हैं।…इतना सोचते ही दिल को आराम आया और लग गये अपने रोजमर्रा के काम में।
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